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READ the FACTS

समुपस्थित समादरणीय सन्तवृन्द, विद्वद्वृन्द, भक्तवृन्द एवं भक्तीमती माताओं,

आप महानुभावों ने अद्भुत अपनत्व, आस्था, उत्साह और आह्लादपूर्वक इस संगोष्ठी का समायोजन किया है श्रीविनयजी टुल्लू जी आदि जिन महानुभावों का इस संगोष्ठी के समायोजन और संचालन में गुप्त अथवा प्रकटयोगदान है,
 भगवान श्री चन्द्रमौलीश्वर की अनुकम्पा के अमोघप्रभाव से उनका सर्वविध उत्कर्ष हो,ऐसी भावना है। यह जो संस्थान है, विश्व के लिए मार्गदर्शक और वरदानस्वरुप सिद्ध हो ऐसी भावना है।



सज्जनों ! वेद सम्पूर्ण विश्व में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी ऋग्वेदादि का महत्व स्वीकार किया है। इस रॉकेट, कम्प्यूटर, एटम और मोबाईल के युग में भी वेदों की उपयोगिता यथावत् चरितार्थ है। समग्र ज्ञान-विज्ञान का स्रोत ऋगादि वेद हैं। वेदों की व्याख्या उसके रस-रहस्य का स्वरुप महाभारत में अंकित किया गया है। भगवान श्रीकृश्णद्वैपायन वेदव्यास, जोकि महाभारत के रचयिता हैं, उन्होंने डंके की चोंट से यह तथ्य ख्यापित किया कि जो कुछ महाभारत में है, इसके प्रचार-प्रसार के कारण अन्यत्र भी हो सकता है, लेकिन जो कुछ महाभारत में नहीं है, वही कहीं भी नहीं हो सकता । अतः सबकुछ महाभारत में सन्निहित है। वेदों के सन्दर्भ में भगवान मनु का उद्घोष है “भूतम् भव्यम् भविष्यम् च सर्वं वेदादि भविष्यसि“ जो कुछ काल की सीमा में सन्निहित तत्व या पदार्थ हैं उन सबका अधिगम विज्ञान वेदों के द्वारा सम्भव है। वेदों का बीज प्रणव या ओंकार है। ओंकार की महिमा प्रकारान्तर से वेदों की ही महिमा मान्य है। माण्डूक्य उपनिषद का उद्घोष है- “यद्यद् त्रिकालातीतं तदप्योंकार एव”“ जो कुछ कालगर्भित है और यहां तक कि कालातीत है, काल की पकड़ और पहुंच से पर है, उसका अधिगम या विज्ञान भी वेदों के द्वारा सम्भव है। आयुर्वेद हो, धनुर्वेद हो, वास्तुविज्ञान हो, सबका उद्गम स्थान ऋगादि वेदों को ही माना गया है। आधुनिक विज्ञान को जानने वाले आप जैसे वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि विज्ञान के मूल में गणित सन्निहित है। परन्तु यजुर्वेद, ऋग्वेद आदि ने सर्वप्रथम दशमलव पद्धति को उद्भाषित किया जिसमें सिस्टम योग कहते हैं वो वेदों की देन है। आजकल बायनरी सिस्टम के माध्यम से समग्र संख्या को एक और शून्य में सन्निहित किया जाता है, यह जो दशमलव पद्धति है, उसकी उद्भावना वैदिक महर्षियों द्वारा ही की गई है। वेद का अर्थ स्वयं की ज्ञान और विज्ञान होता हैं अतः दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातल पर इस रॉकेट, कम्प्यूटर, एटम और मोबाईल के युग में भी वेदविहीत विज्ञान की उपयोगिता सिद्ध है। मैं संकेत करता हूं। कोई भी वैज्ञानिक क्यों न हों, इंजीनियर क्यों न हो, यदि उन्हें भगवान की शक्ति जो कि प्रकृति है, जिन्हें माया भी कहते हैं, उसके द्वारा प्रदत्त पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश सुलभ न हों, तो वैज्ञानिकों की स्थिति क्या हो ? जितना भी आविष्कार होता है, अनुसंधान होता है, उसके मूल में तो भगवान की शक्ति, प्रकृति के द्वारा प्रदत्त पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन और आकाश ही सिद्ध होते हैं। भगवद्गीता में श्रीकृश्णचन्द्र का वचन है-



मयाध्यक्षेण   प्रकृति:      सूयते    सचराचरम्।

हेतुनानेन    कौन्तेय     जगद्विपरिवर्तते।।

-(श्रीमद्भगवद्गीता 9.10)


साथ ही साथ वैज्ञानिकों को जो देह, इन्द्रिय, प्राण और अन्तःकरण की प्राप्ति भी है, जिनके माध्यम से चेतन जीवकला की अभिव्यक्ति होती है, यदि वैज्ञानिकों को वे सुलभ न हों, तो उनका अस्तित्व भी कैसे सिद्ध हो । इसका अर्थ यह है- भगवान की जो चमत्कारपूर्ण कृति या सृष्टि है, उसी का आलम्बन लेकर हम कुछ वैज्ञानिक अनुसंधान कर पाते हैं , आविष्कार कर पाते हैं। हमारे वैदिक महर्षियों ने जिन तथ्यों को उद्भाषित किया, कालान्तर में न्यूटन इत्यादि वैज्ञानिकों ने उन्हीं का किंचित अंशमें विश्व के सामने प्रस्तुत किया । पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश में जो स्वभावसिद्ध सिद्धान्त सन्निहित हैं, जब कोई व्यक्ति उनका दर्शन कर पाता है, तब उसको वैज्ञानिक कहा जाता है। और एक विचित्र तथ्य है कि यंत्र के मूल में तंत्र होता है और तंत्र के मूल में मंत्र होता है। मंत्र के बिना तंत्र की तंत्र के बिना यंत्र की सिद्धि नहीं होती। कोई भी आप यंत्र लीजिए – उसे कैसे बनाया जाता है ? उसके मूल में प्रोसेस, मेथड, प्रक्रिया या कोई तंत्र होता है। और तंत्र किसको कहते हैं ? जो मंत्र को व्यावहारिक रुप देने का प्रक्रम है उसी का नाम तंत्र होता है। मन्त्र का अर्थ होता है- सिद्धान्त । प्रकृति में सन्निहित सिद्धान्त को कोई वैज्ञानिक अपनी प्रतिभा के बल पर जान लेता है तब उस सिद्धान्त को यंत्र तक पहुंचाने के लिए वो जो मेथड, प्रोसेस या प्रक्रिया अपनाता है, उसी का नाम तंत्र है। तो यंत्र के मूल में तंत्र और तंत्र के मूल में मंत्र यह विज्ञान का स्रोत है।


साथ ही साथ यह विचार करने की आवश्यकता है की यन्त्र अपने आप में एक कार्य है। किन्तु उसके द्वारा विविध वस्तुओं के उत्पादन का प्रयोजन सन्निहित है ।

मन्त्र के माध्यम से वस्तु की उपलब्धि होती है, वस्तु का निर्माण होता है। तो मन्त्र को बनाने की प्रक्रिया क्या होती है और यन्त्रों के माध्यम से कार्यों के सम्पादन की प्रक्रिया क्या  होती है। दोनों प्रक्रियाओं का जब विज्ञान होता है तब कोई व्यक्ति वैज्ञानिक माना जाता है। सबसे उंचा वैज्ञानिक कौन हो सकता है ? इस पर विचार करें। मुण्डक उपनिषद में एक दृश्टांत दिया मकड़ी का । मकड़ी से आप सब परिचित हैं। वह जाला बनाती है और जाला बनाने की सामग्री भी अपने अन्दर संजोकर रखती है। जाला बनाने वाली भी वह होती है और जाला बनने वाली भी वही होती है। जाला बनाने की सामग्री भी वह अपने अन्दर संजोकर रखती है। एक चमत्कृति, एक बहुत बड़े इंजीनियर के रुप में हम मकड़ी को चुन सकते हैं। उसमें क्या चमत्कृति है ? प्रकृति प्रदत्त निसर्गसिद्ध चमत्कृति मकड़ी के जीवन में है। जाला को केवल बनाती ही नहीं है जाला बनाने की सामग्री भी अपने अन्दर संजोकर रखती है। साथ ही साथ एक सिद्ध योगी जो संकल्प के बल पर व्याघ्र बन जाता है। संकल्प के बल पर जो  व्याघ्र बन जाता है वो सिद्धयोगी का नाम है योगव्याघ्र। योग की शक्ति से निर्मित व्याघ्र। उस व्याघ्र को बनाने वाला भी वह सिद्धयोगी होता है। और व्याघ्र बनने वाला भी वह सिद्धयोगी होता हैं। तो सबसे उंचा वैज्ञानिक और इंजीनियर कौन होता है जो स्वयं ही मेकर और स्वयं ही मेटर होता है। उससे बड़ा कौन होगा। ऐसी विज्ञान की चमत्कृति हमारे आपके जीवन में प्रायः प्रतिदिन आती है स्वप्नावस्था में। सपना-हम आप देखते हैं। स्वप्न की अगर समीक्षा की जाए सज्जनों तो स्वप्न क्या है ? स्वप्नावस्था में हम आप जीव जो होते हैं, उनमें हम जीवों में ऐसी क्षमता आ जाती है जितने स्वप्न में स्थावर जंगम प्राणी दिखाई पड़ते हैं और उनके पोषक तथा उद्गमस्थान पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश परिलक्षित होते हैं उन सबके रचयिता उन सबके साक्षी जीव ही होता है । अगर विज्ञान का स्रोत समझना हो, सबसे उंचे वैज्ञानिक का दर्शन करना हो, तो अपने स्वप्नावस्था का अनुशीलन करना चाहिए। हम स्वयं ही स्वप्नावस्था में सबसे उंचे वैज्ञानिक हो जाते हैं। इसका मतलब जो स्वप्न में तरु लता गुल्म इत्यादि स्थावर प्राणी परिलक्षित होते हैं और चींटी, चिड़िये, मनुष्य इत्यादि जंगम प्राणी जो परिलक्षित होते हैं उनके अभिव्यंजक और पोशक संस्थान के रुप में स्वप्नावस्था में पृथ्वी, पानी, प्रकाश, पवन, आकाश का हमको दर्शन होता है। उन सबका निर्माता कौन होता है ? सच्चिदानन्दस्वरुप सर्वेश्वर का अंशसरीखा जीव अर्थात् हम-आप कौन होते हैं। लेकिन विचार करने की आवश्यकता है स्वप्नावस्था में इतनी दिव्य शक्ति हमारे जीवन में आती कैसे है ? उस समय भी तो हम जीव  हैं। लेकिन इस समय उस प्रकार की चमत्कृति हमारे आपके जीवन में नहीं है जिस प्रकार की चमत्कृति हमारे आपके जीवन में स्वप्नावस्था में व्यक्त होती है। उसका कारण क्या है ? ये जो स्थूल शरीर है जो एक दिन शव के रुप में परिलक्षित होता है इस स्थूल शरीर से उपर भगवान अनुग्रहपूर्वक हमको पहुंचा देते हैं स्वप्नावस्था में ।  और कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों की गति भी स्वप्नावस्था में नहीं होती हैं। कर्मेन्द्रियां सो जाती हैं, ज्ञानेन्द्रियां सो जाती हैं,  आत्मचेतन से अधिष्ठित अर्धनिद्रित मन वासना और संकल्प की प्रगल्भता से उर्जायुक्त होकर सकल स्वप्न पदार्थों का रचयिता बन जाता है। स्वप्नावस्था में जो कुछ पदार्थ हमको दिखाई पड़ता है वह सब संकल्पात्मक होता है। स्वप्न टूटने पर, कल्पना कीजिए स्वप्नावस्था में आग लग गई और करोड़ों व्यक्ति हमको दिखाई पड़ते थे, वो भस्म हो गये। लेकिन स्वप्न टूटने पर राख का इतना अंशदिखाई पड़ेगा क्या ? वस्तुतः क्या है ? स्वप्नावस्था में हमारे आपके मन में ऐसी उर्जा या शक्ति का सन्निवेष हो जाता है सकल स्वप्न प्रपंच के रुप में स्वप्न साक्षी तैजस अपने आपको व्यक्त कर लेता है। यह हमने विज्ञान की आधारशिला पर सांकेतिक प्रवचन किया । यह जो स्थूल शरीर है उसमें तादात्म्यापत्ति, अहंता, ममता के कारण हमारी शक्ति सीमित हो जाती है । स्वप्नावस्था में भगवान की कृपा से इस स्थूल शरीर से जब उपर हमारी प्रज्ञाशक्ति उठ जाती है , हममें आपमें इतनी शक्ति आ जाती है कि सकल स्वप्नप्रपंच के स्रष्टा बन जाते हैं । एक विशिष्ट उत्कृष्टतम वैज्ञानिक के रुप में हमारी अभिव्यक्ति होती है। गाढ़ी नींद भी हमारे आपके सामने है । उस समय तो सूक्ष्म प्रपंच कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय, अन्तःकरण, प्राण, इनसे भी उपर हमारी स्थिति हो जाती है उस समय न कर्मेन्द्रियों का भान होता, न ज्ञानेन्द्रियों का भान होता है न प्राणों का भान होता है न मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार की गति सुषुप्ति गाढ़ी नींद में होती है । उस समय क्या दिव्यता हमारे जीवन में आ जाती हैं, क्या सिद्धियां हमारे जीवन में आ जाती हैं ? स्वप्नावस्था में मृत्यू के भय की पहुंच हम आप तक नहीं होती । सर्वानुभूति है- हिन्दू, मुसलमान, क्रिष्चियन, सब इस मत को मानते हैं। चींटी, चिड़िए को भी गाढ़ी नींद आ जाए तो गाढ़ी नींद में, सुषुप्ति अवस्था में किसी भी द्वंद्व की, सर्दी की, गर्मी की, भूख की, प्यास की हम तक पहुंच नहीं होती। कितनी उंची सिद्धि हो गई । यहां तक कि मरणासन्न व्यक्ति को भी दो क्षणों के लिए गाढ़ी नींद या सुषुप्ति प्राप्त हो जाए, उसे मृत्यु का भय प्राप्त नहीं हो सकता । मृत्यु से पारंगत, मृत्यु से अतीत जीव की प्राप्ति हमको गाढ़ी नींद में होती है। जिसको हम सुषुप्ति कहते हैं। सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास जो भी द्वंद्व है, उन द्वंद्वों की पहुंच हम आप तक नहीं होती हैं। यहां तक कि काम, क्रोध, लोभ, मोह ये जितने मनोविकार हैं, इन सबकी पहुंच हम आप तक गाढ़ी नींद या सुषुप्ति में नहीं होती । साथ ही साथ वेदना, ताप या दुख की गति भी हम आप तक सुषुप्ति में नहीं है। इसका अर्थ क्या हुआ सज्जनों ! अपने जीवन की गतिविधि पर विचार करें तो जाग्रत की अपेक्षा स्वप्न में हमको अधिक शक्तियां प्राप्त होती हैं, सिद्धियां प्राप्त होती हैं और उसी सुषुप्ति अवस्था में उससे भी अधिक उंची सिद्धि की प्राप्ति होती है। कहीं समाधि की सिद्धि प्राप्त हो जाये, ईश्वरतत्व, भगवद्तत्व या ब्रह्मतत्व का साक्षात्कार हो जाये, तब क्या स्थिति होगी सज्जनों ? तब ये स्थिति होगी कि मृत्यु, अज्ञता और दुख तीनों का बीज भी सदा के लिए दग्ध हो जायेगा। तो समग्र विज्ञान का अन्तरभाव जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति और समाधि में वेदों ने इन अवस्थाओं का अंकन करके समग्र सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति संहृत्ति या संहार का विज्ञान प्रस्तुत किया है । एक वृक्ष को आप देखते हैं। कोई ऐसी शक्ति है जो समय पर उन वृक्षों में पत्तियों को लगा देती हैं। समय पर पत्तियों का पोषण करती है और समय आने पर पतझड़ की स्थिति आ जाती है। उत्पादनीय शक्ति और पालनीय शक्ति, संहारशक्ति वृक्ष में काम करती है। जब तक वृक्ष जीवित रहता है, प्राणस्पन्दन से युक्त रहता है तब तक तीन प्रकार की शक्तियां उनमें सन्निहित होती हैं। पत्तियों को उत्पन्न करने वाली शक्ति, समय पर पत्तियों को उत्पन्न कर देती हैं। उसी प्रकार उसे विकसित करने वाली शक्ति, पत्तियों का पोषण करती रहती है और अन्त में परिपुष्ट पत्तियों को एक ऐसी शक्ति है, जो गिरा देती है। तो विज्ञान के भी तीन प्रकल्प हैं- उत्पादक, पालक और संहारक। जहां आप बैठे हैं वहां जिन अस्त्रों का प्रयोग होता है वह क्या है ? संहार शक्ति की प्रधानता से यह वैज्ञानिक विभाग। कोई रक्षण शक्ति की प्रधानता से वैज्ञानिक विभाग होता है। कोई उत्पादन शक्ति की प्रधानता से वैज्ञानिक प्रकल्प होता है। सबसे बड़े वैज्ञानिक भगवान हैं। समग्र जगत की उत्पत्ति करते हैं। समग्र जगत का पालन करते हैं और समग्र जगत का संहार भी कर लेते हैं। वो भगवान की चमत्कृति क्या है ? इस पर हम विचार करते हैं। सावधान! यह माईक नामक यंत्र है। किसी ज्ञानवान, इच्छावान प्रयत्नवान, चेतन मेकेनिक यांत्रिक ने लोहा और प्लास्टिक नामक मैटर को माईक नामक रुप प्रदान किया होगा। कार्य की सिद्धि के मूल में तीन सिद्धान्त काम करता है, कार्य के मूल में इच्छाशक्ति चाहिए । बिना ईच्छाशक्ति के कार्य की निश्पत्ति नहीं हो सकती । इच्छाशक्ति के मूल में ज्ञान चाहिए । जानाति-इच्छति-करोति। किसी भी कार्य का हमको सांगोपांग ज्ञान होता है। फिर इच्छाशक्ति का उदय होता है फिर क्रियाशक्ति के द्वारा कार्य की निष्पत्ति होती है। किसी ज्ञानवान, इच्छावान प्रयत्नवान, चेतन मेकेनिक ने इस लोहा और प्लास्टिक नामक मैटर को माईक नामक यंत्र प्रदान किया । सावधान ! जिस यांत्रिक मेकेनिक ने लोहा और प्लास्टिक नामक उस मेटर, धातु या पदार्थ को इस माईक नामक यंत्र का रुप प्रदान किया । उसमें माईक बनाने की क्षमता सन्निहित थी, माईक बनने की क्षमता सन्निहित नहीं थी। और जिस लोहा और प्लास्टिक नामक धातु, मेटर या पदार्थ ने इस माईक नामक यन्त्र का रुप धारण किया उसमें माईक बनाने की क्षमता सन्निहित थी, माईक बनाने की क्षमता सन्निहित नहीं थी। इसी प्रकार से मैं संकेत करना चाहता हूं, वेदों के प्रति जो पूर्ण आस्थान्वित विचारक नहीं हैं, या दर्शन नहीं है, उनके द्वारा भी ईश्वर की सिद्धि होती है। वह ईश्वर जगत बना सकता है , जगत बन नहीं सकता। लेकिन वेदसम्मत, वैदिक ईश्वर की क्या चमत्कृति है, वेदों में पूर्ण आस्थान्वित दार्शनिकों ने जिस ईश्वर को उद्भाषित किया है, उसकी क्या क्षमता है ?

इसका अर्थ वह स्वयं को ही आकाश के रुप में व्यक्त करता है हमारे ईश्वर आकाश बनाने वाले भी और आकाश बनने वाले भी। वायु बनाने वाले भी और वायु बनने वाले भी। तेज बनाने वाले भी और तेज बनने वाले भी, जल बनाने वाले भी और जल बनने वाले भी । पृथ्वी बनाने वाले भी और पृथ्वी बनने वाले भी। पार्थिव जितना भी कार्यप्रपंच है उसके बनाने वाले भी और बनने वाले भी । कारण से कार्य की निष्पत्ति होती है उसका भी विज्ञान है । सावधान ! ये वैदिक विज्ञान है। आकाश- ये सबसे सूक्ष्म भूत है। आर्किमेडीज के समय तक ये वैज्ञानिकों को आकाश का पता नहीं था। अब धीरे धीरे आकाश का अस्तित्व मानने लगे हैं। हमारे यहां जो चार्वाक दर्शन है उसके अनुसार आकाश का अस्तित्व ही नहीं मान्य है। लेकिन जो उत्तम कोटि के वैज्ञानिक और दार्शनिक हैं जो आकाश का अस्तित्व मानते हैं, उपर आकाश है और नीचे पृथ्वी अपेक्षाकृत स्थिर है तो गतिशील जल, तेज और वायु की स्थिति है। नीचे पृथ्वी साधे न रहे, उपर आकाश स्थिर न रहे तो जल, तेज और वायु जो गतिशील् हैं, इनको थामने वाला, साधने वाला कोई न हो। कारण से जो कार्य की निष्पत्ति होती है, उसका सिद्धान्त क्या होता है ? सन्निकट सर्वषेश का नाम कार्य होता है और सन्निकट निर्विषेश का नाम कारण होता है। थोड़ा विचार कीजिए। पृथ्वी में हमको शव्द, स्पर्श, रुप, रस, गंध- ये पांचों रुपों का दर्शन होता है। पृथ्वी में शव्द भी है, स्पर्श भी है, रुप भी है, रस भी है, गंध भी है। लेकिन जल की ओर बढ़े ंतो, जल में स्वभावतः गंध नहीं है। विषेशता कम हो गई तो कारण की सिद्धि हो गई। विषेशता बढ़ गई तो कार्य की सिद्धि हो गई । तत्वों की गणना को कहां जाकर विश्राम दें। केमेश्ट्री वाले, फिजिक्स वाले आजकल तत्वों की संख्या बताते हैं। लेकिन प्रष्न उठता है, कहां जाकर तत्व विराम को प्राप्त होते हैं। मैं उदाहरण देता हूं- -गुलाब इत्यादि पुष्पों से बनी हुई सामने ये माला । इस माला में कोई छठा गुण नहीं है। पृथ्वी में पांच गुण है। आकाश की ओर से शव्द प्राप्त है, वायु की ओर से स्पर्श प्राप्त है, तेज की ओर से पृथ्वी को रुप प्राप्त है, जल की ओर से पृथ्वी को रस प्राप्त है और स्वयं पृथ्वी को गंध प्राप्त है। पृथ्वी में पांच गुण हैं। पृथ्वी का कार्य यह पुष्प है। पुष्पों से निर्मित यह माला है। इस माला में और माला जिन पुष्पों से बनी है, उनमें कोई छठा गुण नहीं है। जहां गुण में वृद्धि रुक जाती है वहां एक वैदिक सिद्धान्त है, वह अन्तिम चरम कार्य है। पृथ्वी से नीचे कोई कार्य क्यों हम स्वीकार नहीं करते ? सांख्यवादी नहीं स्वीकार करते, योगी नहीं स्वीकार करते, वेदान्ती क्यों नहीं स्वीकार करते, क्योंकि विषेशता में वृद्धि जब रुक जाती है, तो हम समझते हैं अन्तिम तत्व है, पृथ्वी हमारे यहां अन्तिम भूत क्यों है ? क्योंकि छठवें गुण से संपन्न किसी कार्य का सम्पादन पृथ्वी के द्वारा नहीं हो सकता । लेकिन थोड़ा उपर चलें। कार्य और कारण का विज्ञान कैसे होगा ? पृथ्वी में पांच गुण हैं, तो जल में चार ही गुण होंगे। स्वभावतः जल में गंध नहीं है और तेज में रस भी नहीं है। शव्द, स्पर्श, रुप तीन ही गुण होते हैं। और आगे चलें, वायु में शव्द और स्पर्श दो ही गुण होते हैं। आकाश में स्पर्श भी नहीं होता, शव्द ही होता है। लेकिन उस आकाश का मूल कौन हो सकता है ? जिसमें शव्द नामक गुण भी न हो, शव्द की बीजावस्था हो। उसी का नाम प्रकृति, उसकी का नाम अव्यक्त है। और ब्रह्मतत्व, भगवद्तत्व या परमात्मतत्व किसे कह सकते हैं, जिसमें वह बीजावस्था भी न हो। उदाहरण देते हैं। कृषि विज्ञान को ले लीजिए। एक है बीज और एक है भूमि,पृथ्वी। दोनों में क्या अन्तर है ? बीज में अंकुर इत्यादि उत्पन्न करने की वासना, उसमें क्या है, संस्कार सन्निहित है। अगर वो संस्कार का लोप होता है, बीज को दग्ध कर दें, उसमें घुन लग जाये, बीज फिर पृथ्वी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रह जाएगा।



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